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थोड़ा सा रूमानी हो जाएं (जीवनहीन जीने के लिए)
उम्र सुनो जरा
थोड़ा सा रूमानी हो जाएं।
जीवन हैं चार दिन , तो क्यों न
जिए जीभर के।
हां जी, तो यह है प्रेम लीला—
दशक 80-90 का दौर, एक मध्यमवर्गीय दंपति की कहानी।
पहला दृश्य: श्रीधर और गृह मंत्रालय
श्रीधर बेचारे, प्रेम और सौहार्द के मारे,
विवाह उपरांत, गृह-न्यायालय में हाजिर हुए।
उम्र बसंती,
जिम्मेदारियों की तेल में
दीपक की बाती-सी जल गई।
जब उमड़ा प्रेम का ज्वार, तो बोले श्रीधर—
"अरे सुनती हो, थोड़ा सा रूमानी हो जाएं?"
गृह मंत्रालय से धीमा उत्तर आया—
"क्या जी, बयौरा गये हैं?
मुन्नू-चुन्नू बड़े हो रहे हैं,
और आपको रोमांस चढ़ा है!
धर्मेंद्र जी बने फिरते हो क्या?
चलो, हाट-बाजार चलते हैं,
आज इतवार है, कुछ सस्ती सब्जी ही ले आएं।"
श्रीधर बाबू का चेहरा बुझी लालटेन-सा धूमिल हुआ।
मन ही मन बोले—
"हाय मुहब्बत जिंदाबाद!
क्यों श्रीमती, प्रेम को यूं त्याग रही हो?
देखो तो, प्रेम लीला हमारे जीवन के चौराहे पर
कटोरा लिए खड़ी है।"
"इक आना, दो आना दे दो प्रिय,
सुनो न, रात को ही सही,
अरे भाग्यवान, ये जीवन हैं
जियो आज और आज ही
थोड़ा सा रूमानी हो जाएं?"
दूसरा दृश्य: दिनेश बाबू और उनकी प्रेम-सुहासिनी
यह हैं दिनेश बाबू—
ज्ञान के पुजारी, पेशे से डॉक्टर,
उपाधियों की लंबी हैं सूची l
पर उनकी श्रीमती— बड़ी लचीली,
रति-रंग प्रेम-सुहासिनी!
उम्र चालीस में भी छोकरों का दिल धड़काती।
सप्ताहांत की शाम थी,
दिनेश बाबू पढ़ाई में मगन थे।
पत्नी ने छेड़ा—
"प्रिय, आज कैंडल-लाइट डिनर करें?"
ज्ञान के क्रांतिकारी सिपाही मुस्कुराए—
"अरे, मोमबत्तियों में भोजन खाने का क्या तुक?
आओ, तुम्हें रोमांटिक गाना सुनाता हूँ!"
सुर साधे, स्वर छेड़ा—
"इक तेरा साथ हमको दो जहां से प्यारा है..."
पत्नी दस कदम दूर बैठी,
पलकों से भावनाएँ छलकीं,
मगर आधी रात होते ही बोली—
"वाह! बहुत अच्छा गाया,
पर अब नींद से भारी हो रही हैं पलकें।
चलो, सोने चलती हूँ।
तुम भी अपना करवा समेटो,
रात आधी हो चली है।"
फिर भी मन में हलचल थी,
तो बोली धीरे से—
"दिनेश, यार, कभी-कभी ही सही,
लेकिन जिए जरा दिल से
थोड़ा सा रूमानी हो जाएं!"
उफ्फ... मुहब्बत जिंदाबाद!
पुराने दिनों का प्रेम
प्रेम के जमाने वो भी थे—
संयुक्त परिवार की दुनिया में,
माँ खुद बहाने से छत पर भेजती थी—
"जाओ, आज छत पर ही सो जाना,
घर में मेहमान आए हैं।"
हाय मुहब्बत ज़िंदाबाद l
और महानगरों में भी प्रेम अंकुरित था—
दिनभर की भागदौड़ के बाद,
रात ही थी, ताक-झाँक के लिए।
पर जैसे ही रात के बारह बजे,
नगर निगम का आतंक जागता—
"उठो, उठो! नल में पानी आ गया!"
हाय, मुहब्बत जिंदाबाद!
अब ऐसे में भी प्रेम जी रहा था।
पत्नी बाल्टी भरती, और मैं...
बस उसे निहारता ही रह जाता।
लेकिन फिर एक दिन,
धीरे से मुस्काई वो और बोली—
"सुनो, कल घर में कोई नहीं होगा,
तो थोड़ा सा रूमानी हो जाएं!"
आधुनिक प्रेम: उलझन और प्रश्न
छोड़ो इन अधूरी बातों को,
अब करते हैं आज की बात।
प्रेम तो आज भी भारी है,
पर मुश्किलें भी कुछ कम नहीं।
पहले फुर्सत नहीं थी, अब संस्कारों में झिझक है।
फिर भी प्रेम सौहार्द में ब्रेकअप-सॉन्ग नहीं बजा था,
ना ही "अपना वाला छोड़, कोई और भाया" था।
मगर आज...?
बीसवीं सदी का प्रेम इतना बेबस क्यों है?
यह मेरा-तेरा, काम में बदलता क्यों जा रहा है?
संस्कार अब कटाक्षों में सिमट रहे हैं,
पहले उसकी खुशी में दिल धड़कता था,
आज उसकी खुशी से शिकायत क्यों है?
प्रेम की परिभाषा
प्रेम अब इतना कंजूस क्यों है?
सुहागन दिखना पहले सौभाग्य था,
अब सिंदूर न लगाना फैशन हो गया है।
पर प्रेम केवल आकर्षण नहीं,
यह सौभाग्य और समर्पण का संगम है।
सच्ची लगन से प्रेम करो,
तो तुमसे बड़ा कोई अंबानी नहीं।
जो इंतजार और धैर्य से प्रेम तक पहुँचते हैं,
उन्हीं को अपनी प्रेमिका में
इंद्र की अप्सराएँ नजर आती हैं।
बाकी जीवन में,
मध्यमवर्गीय दंपति का प्रेम-सौहार्द रहेगा।
जीवन हैं आज कल नहीं होगा
हर काम करो ,जीने के लिए
चिंता त्याग कर ,जियो जीभर के
पल में जैसे सदियों जी लिए
कुछ हैं कुछ होगा
जो न हुआ तो कुछ और होगा
तो
"थोड़ा सा रूमानी हो जाएं?"
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