हो रही बंजड क्यों
ये मेरा अन्तः भावभर हैं
या की दुविधा वाटिका की प्रवाह
कोई वास्तविकता किरण भी हैं
या हैं मन टाँगें का लचकता पहिया
रोकती रहती हूँ जिसे मैं ,
वो बन विचार वाहनी
अकुला रही मुझे बार बार हैं
मैं अवलोकन करती नैनों से
पूछती हूँ नीलगगन से
रिश्तों की धरती -हो रही बंजड क्यों ?
जो हैं सब अपने
तो रिश्तों का मन विरान क्यों
आह निकलने से पहलें ,
होता नही इलाज क्यों ?
जाने ये कौन सी पुरवा ब्यार
उड़ाती ले जा रही हैं
रंगोलीयों का कारवाँ
कोई छावनी भी नही
कलमुई इस ब्यार का ।
जब रंगरेज़ के ही घर में
रंगों का सुखाड़ हैं
तो रुदन ही करती
उड़ जाएगी रिश्तों की
अध् पकी बाजड़े की गढ़रिया
इस मन से उस मन का हाल
अब कबूतर भी नही बाँचते
ऐसे में क्या पुछू
जो न पूछूँ तो निशा बोझिल हो जायें
चल प्रारब्ध न सही
छितिज से ही बतां --
रिश्तों की धरती -हो रही बंजड क्यों ?
हर इक इन्सान बस भटका रहा हैं
खुशियों को खुशियों की राह से
कभी बडपन दिखा कर
तो कभी संस्कार की बेड़ लगाकर
जाने कब तक
जलती रहेगी रिश्तों की होलिका
मर्यादा ,रिवाज़ तेरी गोद में
क्या बोलेगा इक दिन
" फिर से कागा"
रिश्तों वाली छत की मुंडेर से
जब जब होगा प्रहार
रिश्तों के आँगन में
गूंजती रहेगी पायल
सरगम भरे सवाल से
रिश्तों की धरती -हो रही बंजड क्यों
हो रही बंजड क्यों ??
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हर इंसान पर ये तोहमत क्यों ? हर रिश्तों पर ये सवाल क्यों ?
ReplyDeleteहमें अपने फलक को असीम बनाने की पूरी आजादी है....सामने वाले की जमीन अगर बंजर है तो इससे कोई फर्क नही पड़ता.... हाँ फर्क दिखना चाहिए कि हम वैसे न बने....
boht khoobsurat kavita......
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