जाने क्यों कुछ मेरे अंदर से निचोड़ रहा है,
ये पल पल की आहटें मुझे झझोल रही हैं ,,
ये क्या है जो मेरी पूरी कायनात पर छा रहा ,
न शक्ल ही नज़र आती है ,न नक्स ही दिख रहा है
ये वादियों के संग कर रहा शिरकत कौन है
ये पहर बन क्यों मुझको अगोड़ रहा है ,
चाँद के संग निहारता और रौशिनी संग निखरता है ,
ये दस्तक किस नेकियाना बासिन्दें की है ,
रूप की डोली सजा लूँ, कुछ ऐसा ही अर्ज क्र रहा है ,
साँसों में भी शामिल होकर सरगम सुना रहा है ,
उठा दु पलकें तो ओझल और झुका लूँ तो दर्पण है ,
डरता है मेरी बेखुदी से शायद ....
या फिर अंधेरों की आदत थी .....मेरे उजालें से छिप गया
आस पास तो है भटकता .....लेकिन रूबरू से है डरता ...
क्यों की ..
जिन रिश्तों में पांकिज्गी होती है ,
उन रिश्तों की शक्ल - वो सूरत नही होती ..
नाम- और बेराद्री नही होती .......
ऐसे रिश्तें तो- न डगर देखतें हैं ,न रंग ऐ सूरत ..
बहती सरिता से यें ,
जिस भी राह से गुजरें बस नमीं से नवाज्तें हैं
अब कैसे भला कोई इन पांकिजे से रिश्तों का
जात ,नाम और धर्म तय करें
छोड़िये अहमकपना और पूछे हर कोई आपने दिल से ...
कैसे बांध पायेंगे सरिता की धार को ????
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आस पास तो है भटकता .....लेकिन रूबरू से है डरता ...
ReplyDeleteवो जो आज मुझमें घुल रहा हैं
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तो कहिये वो बन्दा कौन है.....