Sunday, September 30, 2012

इक सरहद होती

काश  दिल  की सरजमीं पे इक  सरहद होती   
तो  हसरतें न भटकती  अजनबी तेरे दिल के  देश में 
न दर्शत होतें  तेरे मोहक भाव मेरे  मन के सिलवटों में 
काश की मैं रोक पाती  हिलोड़ ,आशिकी तेरे  छन्दों का 
      " तो "
एक भी शय मेरे गुलिशता से तुम तक न पहुचतें 
न उड़ती मेरी ह्याँ की चुन्नी परदेशी तेरे छत के कोने में 
  काश  दिल  की सरजमीं पे  इक  सरहद होती   

अब तो ये आपना रुख बदलेगी नही ,
 थिरमिर  होकर  जल्जलें में मेरी कायनात बहा लेगी 

अजनबी छावनी में आह तो भर लेतें हैं 
राह में मंजिल तक त्वजुफ नही देतें 
तो फिर क्यों न प्रेम नगर के परिंदों 

दिल की सरजमी पे भी इक  सरहद होती  

इन अजनबियों को सुहानी तो लगती हैं 
शर्मायाँ चाहत की अदायों  का 
पर इक पनघट से दूसरी पनघट 
मिली है ये फिदरत इन्हें विरासत में 

लेकिन जब विराज  जातें हैं ये इक बार
दिल की धरती पर तो इन विरासतों से
   करती है  सरजमीं दिल की  आलिंगन 
अब दोस किस पे और कैसे लगाई जाएँ
इस कहकशाँ को अब यही,
 दिल की जमीं पे दफनाई जायें !

और बन भी जायेगी गर सरहद दिल तेरी ज़मीन पर
फिर भी दिवालिया कर जायेगा ,
वो परदेशी   दिल का वारिश बनकर !

गर देता है दिल को सुकून तो 
निशा तुम ये कह लो 

"बस इक ही सही  "  
    लेकिन  ऐ खुदां 
 दिल  की सरजमीं पे इक  सरहद होती   

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3 comments:

  1. तो हसरतें न भटकती अजनबी तेरे दिल के देश में
    न दर्शत होतें तेरे मोहक भाव मेरे मन के सिलवटों में
    .......................................................
    निशब्द करती बातें

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  2. बहुत सुन्दर...
    काश दिल की सरज़मीं पे सरहद होती.....
    बेहतरीन ..

    अनु

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